पति; परमेश्वर या दास ?

एक कहावत तो आप सब ने जरूर सुनी होगी कि हर कामयाब इंसान के पीछे एक स्त्री का हाथ होता है, पर क्या आपने कभी यह सुना है कि हर नाकामयाबी के पीछे स्त्री का हाथ होता है -- शायद नहीं सुना होगा, इस विषय पर मैंने इतिहास को खंगाला और अपने सनातन ग्रंथों का भी अध्ययन किया तो मैं इस निष्कर्ष पर पहुंचा कि इंसान विशेषकर पुरुष चाहे वह सुर हो या असुर, अमीर हो या गरीब, चाहे जैसा भी हो उसके सुख- दुख,हानि -लाभ,यश-अपयश, कामयाबी - नाकामयाबी में स्त्री एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है, शायद इसीलिए स्त्री को देवी और नारी को शक्ति का स्वरूप माना गया है, जो सर्व सिद्धि दात्री है । पर क्या आपने कभी यह सोचा है कि हमारे सनातन संस्कृति और वैदिक धर्म मे पति को देव या पति को परमेश्वर माना गया है किन्तु क्या उन्हें वह दर्जा मिलता है ? विशेषकर इस आधुनिक युग में , 21वीं सदी में , क्या स्त्रियां अपने पति को परमेश्वर मानती हैं ? आज इसी विषय पर चर्चा करेंगे तो आइए शुरुआत करते हैं ।

 आज भी हमारे समाज में स्त्रियां अपने पति को परमेश्वर मानती हैं, यह सही है, यथार्थ है, कटु सत्य है - अपने पति को देवता मान करके उनकी पूजा भी करती हैं , पिछले 10- 20 वर्षों में अगर हम एक नजर डालें ,वर्ष के सबसे बड़े त्यौहार "करवा चौथ" पर, तो जिस तेजी से पूरे देश ही नहीं बल्कि विश्व में करवा चौथ का त्यौहार मनाने की खबरें सोशल मीडिया के माध्यम से, वीडियो के माध्यम से, फोटो के माध्यम से हमारे सामने आती रहती हैं उससे यह लगता है कि निश्चित तौर पर सनातन धर्म का प्रभाव बहुत ही तेजी के साथ में आगे बढ़ रहा है ,और अपने नए शिखर तक पहुंच रहा है, जिससे यह बात भी साबित होती है कि निश्चित तौर पर पत्नी अपने पति को परमेश्वर मानती हैं , उन्हें देवता का स्थान देती हैं , पर क्या सिर्फ करवा चौथ का त्यौहार कर लेने से ,उनकी आरती उतार लेने से, उनकी पूजा कर लेने से, उनके लिए व्रत रख लेने से वह परमेश्वर हो जाते हैं ? क्या इस एक दिन के बाद पत्नी अपने पति को दास समझकर प्रताड़ित करें उनके निर्णय में रोक-टोक करें उनकी जेब पर बंदिश लगा दे -- यह सब सही है , प्रायः देखने में यह भी आता है कि माताएं अपनी बेटी को जब मायके से विदा करती हैं तो उन्हें यह सिखा के भेजती हैं कि अपनी सास को ,अपने पति को काबू में रखना, घर का सारा कंट्रोल अपने हाथ में रखना ; वरना तुम्हें कोई पूछेगा नहीं और उनकी इस शिक्षा का परिणाम यह होता है कि -- पत्नी अपनी चलाना चाहती है, पति अपनी चलाना चाहता है , -- इन सब के बीच सामंजस्य ना हो पाने की वजह से घरेलू हिंसा जन्म लेती है-- अब क्या इन सबके बाद भी पति परमेश्वर है , स्त्री देवी ? 

 आप में से अधिकांश ने टीवी पर दिखाए जाने वाले सीरियल महाभारत, रामायण, श्री कृष्णा, सुदामा चरित्र ,चाणक्य, शिवाजी, रानी लक्ष्मीबाई ,सती अनुसुइया ,शिव पुराण, विष्णु पुराण इन सब का अवलोकन अवश्य किया होगा , या यदा कदा भागवत कथा, प्रवचन,पुराण का श्रवण या अध्ययन अवश्य ही किया होगा । 
अपने इस शीर्षक और मूल बिंदु को समझाने के लिए मैं आपको थोड़ी देर के लिए पुनः उसी युग में लिए चलता हूं । 

 त्रेता युग की कथा और रामायण सीरियल का वह दृश्य याद करिए जब भगवान राम को उनके पिताजी ने 14 वर्ष के वनवास का आदेश सुनाया था ........... 
 जब लक्ष्मण जी, श्री रामचंद्र जी के साथ स्वयं से वन में जाने के लिए तैयार हो गए थे ................... 
 जब भरत जी, रामचंद्र जी के जाने के बाद अयोध्या वापस आए और उन्हें यह समाचार मिला तो बड़े भाई की दशा को याद करते हुए उन्होंने भी राजमहल से बाहर कुटिया बनाकर के पृथ्वी पर शयन करने का निर्णय लिया ......................... 
 भगवान श्री कृष्ण का जन्म जब कारागार में हुआ था और वासुदेव जी उन्हें नंदगांव पहुंचाने के लिए लेकर निकलने लगे .............. 
 सुदामा जी अपनी दयनीय दशा से बेहाल अपना जीवन जी रहे थे ,अपनी पत्नी के अनुनय पर श्री कृष्ण से मिलने के लिए कोसों दूर की यात्रा पैदल शुरू की थी -- उस समय योगेश्वर कृष्ण उनकी दशा को देख रहे थे, माता रुक्मणी कृष्ण से सुदामा की सुगम यात्रा के लिए निवेदन कर रही थी.......... 
वीर शिवाजी मराठा से लड़ने के लिए जब महल से निकले थे.............. 
श्री राम जी के साथ अंतिम युद्ध को छोड़कर मंदोदरी ने आजीवन कभी रावण के कार्य मे टीका- टिप्पणी नहीं की...... 
 इन सभी कथानक को दृश्य के रूप में परिवर्तित करते हुए पुनः एक बार उन्हें अपने मस्तिष्क में लाकर देखिए इन सभी घटनाओं में एक बात आपको समान रूप से देखने को मिलेगी --- किसी भी कथानक या घटना में सामने जो स्त्री थी उस स्त्री ने पति के निर्णय के विरुद्ध ना तो अपनी बात रखी, ना कदम पीछे किए , ना उनका रास्ता रोका और ना ही छछन्द किया । परिणाम स्वरुप यह स्त्रियां आज भी पूजनीय है, इनके द्वारा किए गए सभी कार्य अनुसरणीय हैं तथा यह हमारे सनातन धर्म की आधार स्तंभ है । 

 इन कथानक और दृश्यों के अतिरिक्त हमारे पुराण, वेद और सनातन धर्म में ऐसी बहुत सी घटनाएं हैं जिनमें पुरुष के द्वारा किए गए कर्म , कृत्य अथवा किसी भी निर्णय में स्त्री ने अपनी बात मनवाने की कोशिश नहीं की , इन सब के पीछे मूल कारण यह था कि कथानक से जुड़ी सभी स्त्रियां अपने पति को परमेश्वर मानती थी ,और उनका मानना था कि परमेश्वर या ईश्वर, भगवान या देवता जो कुछ भी करता है वह सबके हित के लिए करता है और सबके हित में ही स्त्रियां अपना भी हित मानती थी इसलिए उन्होंने उनके किसी काम मे अपनी आशा या आदेश नही थोपा ।

 ( यहां छछन्द शब्द का आशय उस कृत्य से है जो शारीरिक मनोभाव के द्वारा किसी को उसका कार्य करने से रोकने के लिए किया जाता है- जैसे सामान्य रूप से स्त्रियों के द्वारा अपनी बात मनवाने के लिए गाल फुला कर बैठ जाना, नाराज हो जाना, हाथ पैर पटकने लगना , सिर पीटने लगना , जोर-जोर से दहाड़ कर चीखे मारना, रोने लग जाना, ऐसे शारीरिक अभिव्यक्ति करना कि उनके ऊपर दैवीय शक्ति का प्रभाव आ गया है , गालियां देने लगना, मायके भागने लगना, मुकदमे की धमकी देना , स्वतः को आग लगा लेना, आत्महत्या करने का प्रयास करना , आदि आदि यह सभी प्रकल्प छछंद की श्रेणी में आते हैं , मैं यह नहीं कहता कि यह छछन्द सिर्फ स्त्रियों का गहना है, बल्कि इस प्रकार के छछंद पुरुषों में भी पाए जाते हैं )

                          आइए अब कुछ ऐसे कथानक और ऐसे दृश्यों पर प्रकाश डालते हैं जिनमें स्त्रियों ने अपनी बात मनवाने के लिए छछन्द प्रयास किए हैं - या यूं कहें कि उन्होंने अपनी बात मनवाने के लिए हठ कर लिया ? 
 माता कैकई के द्वारा राजा दशरथ से दो वचन के रूप में श्री राम को 14 वर्ष का वनवास और भरत को राजगद्दी दिलवाने के लिए किया गया .................. 
 महाभारत में अपने बड़बोले पन के दुष्परिणाम स्वरूप सभा में निर्लज्ज की गई द्रोपदी का छछंद संकल्प की; दुशासन के रक्त से ही बालों को धुल कर पवित्र होगी................
 भगवान शिव शंकर के बार-बार मना करने के बाद भी राजा दक्ष के यज्ञ में जाने के लिए माता सती के द्वारा किया गया छछन्द ............ 
अपनी कुत्सित बुद्धि के कारण नाक कान कटवाने के बाद में प्रतिशोध की आग में सूपनखा द्वारा किया गया छछन्द .............. 
 अपनी काम वासना के अधीन होकर ऋषि पत्नी कैकसी के द्वारा किया गया व्यभिचार ......... 

 इन सभी कथानक में स्त्रियों के द्वारा एक विशेष प्रकार के बल का प्रयोग करके ,अपने अधीन पुरुषों से एक विशेष कार्य जबरन कराने की कोशिश की गई , उन्होंने उनपर अपना हक दिखाया उन्हें अपना दास मानकर आदेशित किया और अंततः वह कार्य जीवन मूल्यों के आधार पर संपन्न भी हुआ, किन्तु इसके परिणाम स्वरूप जो कुछ भी हुआ वह हम सब कथाओं के माध्यम से श्रवण कर चुके हैं , देख चुके हैं , सुन चुके हैं । अर्थात स्त्री हठ के कारण घटित घटना भविष्य के लिए दुर्घटना बन गई । 

 चंद शब्दों में मैं अपनी बात को समेटते हुए निष्कर्षतः यह कहना चाहता हूं कि यदि स्त्रियां अपने पति को परमेश्वर मानती हैं ,तो परमेश्वर की भांति उनकी सेवा , उनका सम्मान, सलाह देकर उनका मार्ग प्रशस्त करें ना कि अपनी हधर्मिता से उनके भविष्य को संकटों में डालें ।

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