जाति किसने बांटी , caste divided by Brahmins ?

 पृथ्वी पर जन्म लेने वाला प्रत्येक व्यक्ति अपने कर्म और धर्म के अनुसार ही जाति और वर्णों में बंटता है 

इसको सहजता से ऐसे समझ सकते हैं कि कोई व्यक्ति कितना पढ़ा लिखा है ? उसके पास क्या योग्यता है  ? यदि उसके पास लेखन शैली है - तो वह लेखाकार बनेगा , यदि उसके पास श्रम करने की शक्ति है - तो वह श्रमिक बनेगा,  यदि उसके पास तर्कशक्ति है तो उच्च पदस्थ जिला अधिकारी या आईएएस अधिकारी बनेगा , यदि उसके अंदर प्रशासनिक क्षमता है ,लोगों को समझाने की क्षमता है -- तो वह पुलिस का अधिकारी बनेगा,  यदि उसके पास श्रम ,बल ,साहस, शौर्य  है तो वह सेना का अधिकारी,सैनिक बनेगा  -- यह कोई आज की नई व्यवस्था नहीं है जिसको लेकर के भ्रम फैलाया जा रहा है --- 

कि जाति और वर्ण की व्यवस्था ब्राह्मणों ने बनाई है

यह पुरातन काल से चली आ रही है

 यदि किसी वैश्य के घर में कर्मकांडी संतान ब्राह्मण जन्म लेती है तो वह अवश्य ही वैश्य ना हो करके ब्राह्मण कहलाएगा - पूजा जाएगा 

किंतु यदि किसी ब्राह्मण के घर में ऐसा बालक जन्म लेता है या ऐसी संतान जन्म लेती है जो अपने कर्म वर्गानुसार  करें यानी हल चलाने का काम करें,  घर बनाने का काम करें, चमड़े का व्यवसाय करें तो वह भी शुद्र कह लाएगा - वह भी नीची जाति का कहलाएगा ऐसा नहीं कि वह ब्राह्मण कहलाएगा , किन्तु  ऐसी परंपरा चली आ रही है कि ब्राह्मण के घर में जन्म लेने वाला ब्राह्मण कहा गया तो कहा गया , किंतु वास्तव में वह ब्राह्मण नहीं है उसके कर्म ब्राह्मण जैसे नहीं है । 

ब्राह्मण कौन है ? क्षत्रिय कौन है??  वैश्य  कौन है ??  शुद्र कौन है??  इसका वर्णन स्पष्ट रूप से हमारी भागवत में और हमारी भगवत गीता में किया गया है।

 राजनीति के लोग , पागल लोग, कुत्तों की तरह भौंकने वाले लोग 

 सिर्फ मानव में वैमनस्यता फैलाने के लिए ऐसी बातें कहते हैं ताकि इनको बांटा जा सके और अपनी राजनीतिक रोटियां आसानी से सेकी जा सके ।

जैसे सैकड़ों वर्ष पहले अंग्रेजों ने,  उससे पहले मुगलों ने हम लोगों को जाति वर्ग में बांट करके हमें लूटा, हमें पीटा और हमें नष्ट करके चले गए ।

आइए श्रीमद्भगवद्गीता के उपदेशों और श्लोकों के माध्यम से यह समझते हैं कि पूर्व काल में ईश्वर ने जाति और वर्णों को विभिन्न भागों में क्यों बांटा था और उनके कर्म क्या थे ??

यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जन:। स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते॥


 (तृतीय अध्याय, श्लोक 21) इस श्लोक का अर्थ है: श्रेष्ठ पुरुष जो-जो आचरण यानी जो-जो काम करते हैं, दूसरे मनुष्य (आम इंसान) भी वैसा ही आचरण, वैसा ही काम करते हैं। वह (श्रेष्ठ पुरुष) जो प्रमाण या उदाहरण प्रस्तुत करता है, समस्त मानव-समुदाय उसी का अनुसरण करने लग जाते हैं।

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गीता ४.१३ में श्री कृष्ण ने कहा गया 'चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः ।' अर्थात् गुण और कर्मों के विभागपूर्वक चारों वर्ण (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र) मेरे द्वारा रचा गया है। इसके बाद फिर श्री कृष्ण ने गीता के १८ अध्याय के ४१ श्लोक में विस्तार से कुछ इस प्रकार कहा-

ब्राह्मणक्षत्रियविशां शूद्राणां च परन्तप ।

कर्माणि प्रविभक्तानि स्वभावप्रभवैर्गुणैः ॥ - गीता १८.४१

अर्थात् : - हे परन्तप! ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र के कर्म स्वभाव से उत्पन्न गुणों के अनुसार विभक्त किये गये हैं।

यानी जिसका जैसा कर्म और स्वभाव है, उसी के अनुसार उसका वर्ण निर्धारित होगा। यानी राजा का बेटा तभी राजा होगा जब उसमें राजा के समान कर्म और स्वभाव होंगे। श्री राम इसलिए राजा नहीं बने कि वो सबसे बड़े थे। राजा इसलिए बने क्योंकि वे श्रेष्ठ क्षत्रिय गुण वाले थे तथा प्रजा एवं मंत्रीमंडल को भी वो राजा के रूप में स्वीकार थे।

*ब्राह्मण कौन हैं?*

गीता में ब्राह्मण के नौ गुण बताये है। वे  इस प्रकार है -

शमो दमस्तपः शौचं क्षान्तिरार्जवमेव च। ज्ञानं विज्ञानमास्तिक्यं ब्रह्मकर्म स्वभावजम्। - गीता १८.४२

अर्थात् : - शम, दम, तप, शौच, क्षान्ति, आर्जव, ज्ञान, विज्ञान और आस्तिक्य ये सब ब्राह्मण के स्वाभाविक कर्म हैं।

आज के समय में जितने भी लोग अपने आप को ब्राह्मण कहते है और गीता, वेद आदि को मानते है। उन्हें विचार करना चाहिए कि क्या उनमें ये नौ गुण हैं -- 

ब्राह्मण के नौ गुण

ध्यान रहे, इन एक-एक गुणों की व्याख्या बहुत विस्तृत है। इसलिए सरल एवं संछेप शब्दों में कुछ इस प्रकार है -

१. शम - अंतःकरण (मन) को वश में करना ।

२. दम - इन्द्रियों का दमन करना।

३. तप - वाणी और मन को तपा कर शुद्ध करना, धर्म

पालन के लिए कष्ट सहना तप है।

४. शौच - भीतर-बाहर से शुद्ध रहना। 

५. क्षान्ति - दूसरों को क्षमा करना ।

६. आर्जव - निष्कपट भाव को आर्जव कहते हैं ।

७. ज्ञान - वेद, शास्त्र आदि का ज्ञान होना तथा ज्ञान

कराना।

८. विज्ञान - उपनिषत्प्रतिपादित आत्मज्ञान का अनुभव।

 ९. आस्तिक्य - वेद, शास्त्र, ईश्वर आदि में श्रद्धा रखना।

*क्षत्रिय कौन  हैं?*

शौर्यं तेजो धृतिर्दाक्ष्यं युद्धे चाप्यपलायनम्। दानमीश्वरभावश्च क्षात्रं कर्म स्वभावजम्॥ - गीता १८.४३

अर्थात् : - शौर्य, तेज, धृति, दाक्ष्य (दक्षता), युद्ध से पलायन न करना, दान और ईश्वर भाव (स्वामी भाव) ये सब

क्षत्रिय के स्वाभाविक कर्म हैं।

क्षत्रिय के सात गुण

१. शौर्य - शूरवीरता

2. तेज - तेजस्वी

 ३. धृति - धैर्य

४. दाक्ष्य - प्रजा के संचालन आदि की विशेष चतुरता

५. युद्ध से पलायन न करना - युद्ध में कभी पीठ न दिखाना

६. दान - दान करना

७. ईश्वर भाव - स्वामी भाव (शासन करने का भाव)

*वैश्य और शूद्र कौन हैं?*

 कृषिगौरक्ष्यवाणिज्यं वैश्यकर्म स्वभावजम् । परिचर्यात्मकं कर्म शूद्रस्यापि स्वभावजम्॥ . गीता १८.४४ -

अर्थात् कृषि, गौपालन तथा वाणिज्य (व्यवसाय) ये : वैश्य के स्वाभाविक कर्म हैं। और शूद्र का स्वाभाविक कर्म है। परिचर्या अर्थात् सेवा करना ।

यानी जो व्यापार करते है उन्हें वैश्य कहा जायेगा। और जो सेवा करते है उन्हें शूद्र कहा जायेगा। वर्तमान समय में जो लोग नौकरी करते है वो शूद्र है । शूद्रों के विषय में ऐसा भी कहा गया है कि चारों वर्णों की सेवा करना शूद्र का स्वाभाविक कर्म है। तो इसमें कोई गलत बात नहीं है। क्योंकि सेवा (नौकरी) के बदले धन प्राप्त होता है।

सभी वर्ण में शूद्रों की आवश्कता है। एक ब्राह्मण का घर बिना शूद्र के नहीं बन सकता। एक क्षत्रिय का महल, भोजन, तलवार आदि बिना शूद्र के नहीं बन सकती एक वैश्य का व्यापार बिना शूद्र के नहीं हो सकता। यहाँ तक की शूद्र स्वयं का घर बिना शूद्र के नहीं बना सकता। इसलिए चारों वर्णों के लिए सेवा (नौकरी) करना शूद्र का स्वाभाविक कर्म है, ऐसा कहना उचित ही है। इसमें किसी को लज्जा आदि नहीं आनी चाहिए।

....................... (बात अभी बाकी है )

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........... मूलतः  भारत देश में ही नहीं बल्कि पूरे विश्व में ऐसे बहुत से उदाहरण है ,जो वर्तमान में जाति से  न ब्राह्मण है, न  क्षत्रिय है  , न वैश्य हैं न हरिजन हैं , किंतु उनके कर्म ऐसे हैं ,उनका धर्म ऐसा है उनका रहन सहन ऐसा है - कि वह समाज में किसी ब्राह्मण से कम नहीं है ,किसी क्षत्रिय से कम उनका शौर्य और दबदबा नहीं है , किसी वैश्य से कम उनका व्यापार नहीं है ।   मनुष्य अपने कर्म, धर्म और व्यवहार से बड़ा बनता है ना कि जातियों के नाम से , यदि ब्राह्मण जाति से बड़ा होता तो यादव कुल में जन्मे कृष्ण को नहीं पूजते , यदि ऐसा होता तो ब्राह्मण मंदिरों में क्षत्रिय राम को नहीं पूजते,  यदि ऐसा होता तो ब्राह्मण संत रैदास को नहीं पूजते , यदि ऐसा होता है तो ब्राम्हण भीमराव अंबेडकर की जय नही बोलता,  यदि ऐसा होता है तो ब्राह्मण राणा प्रताप, रानी लक्ष्मीबाई ,राजा राममोहन राय ,बाल गंगाधर तिलक इन सब को अपना आदर्श नही  मानते ।  मनुष्यता ही सबसे बड़ा धर्म है , जात पात में बांटना और अपनी  कुर्सी बचाए रखना यह नेताओं के हथकंडे हैं और इतिहास में सदा इसका प्रयोग होता रहा है ।


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